जोशीमठ: आपदा में बेघर हुए लोगों, खासकर गृहस्थी की धुरी महिलाओं की चिंता समय के साथ बढ़ती जा रही है। चिंता सिर्फ यही नहीं है कि उनका क्या होगा, चिंता यह भी है कि जिन मवेशियों के बल पर गृहस्थी की गाड़ी चलती है, उनका पेट कैसे भरेंगी।
उनके लिए ये मवेशी भी परिवार के सदस्य की तरह हैं, लेकिन खुद के बेघर होने के बाद मुश्किल यह है कि कैसे और कहां से उनके लिए चारा-पत्ती का इंतजाम करेंगी। कहां उन्हें रखेंगी।
विस्थापन होता है तो क्या वहां मवेशियों को रखने के लिए भी कोई व्यवस्था होगी। राहत शिविरों में मुझे ऐसी कई महिलाएं मिलीं, जिनका कहना था कि जो मवेशी उनके जीवन में खुशहाली लाए, अब वही भूखे-प्यासे हैं। काश! कोई उनकी भी सुध लेता।
‘मवेशियों के बूते हमारा परिवार चलता है’
नगर पालिका के राहत शिविर में रह रहीं 50 वर्षीय सिद्धी देवी कहती हैं, ‘मकान पर दरारें आ जाने के कारण उन्हें यहां आना पड़ा। यहां सात परिवार हम एक ही हाल में रह रहे हैं। मेरे पति रमेश चंद्र राजमिस्त्री हैं और हमारे तीन बच्चे हैं।
बेटी मनीषा की शादी हो चुकी है, जबकि दोनों बेटे कौशल चंद्र व प्रदीप चंद्र बेरोजगार हैं। मैंने चार गाय व सात बकरी पाल रखी हैं। उनकी सेवा-टहल को दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि उन्हीं के बूते हमारा परिवार चलता है। लेकिन, अब कहां से उनके लिए निवाले की व्यवस्था करूं।’
छावनी बाजार निवासी सुनीता देवी का घर भी दरारें आने से पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। हालांकि, उनके दो मवेशी अब भी इसी घर के पास क्षतिग्रस्त गोशाला में बंधे हुए हैं। कहती हैं, ‘हमें तो शिविर में छत व रोटी मिल जा रही है, लेकिन मवेशियों को कहां ले जाऊं।
उजड़ रही गोशाला में उनके जीवन को भी खतरा है। अब तो हाल यह है कि उनके लिए जंगल से चारा भी नहीं ला पा रही। जो चारा सरकार की ओर से दिया जा रहा है, उससे मवेशियों की गुजर नहीं हो रही।’
कहती हैं कि ‘हमारा रोजगार तो ये मवेशी ही हैं। ये ही सुरक्षित नहीं रहेंगे तो हमारा क्या होगा। दूध बेचकर गृहस्थी की गाड़ी चल रही थी, लेकिन अब तो यह गुंजाइश भी नहीं रही। दूध लेने वाले भी बेघर हो गए। घर छिन गया, रोजी-रोटी छिन गई। ’ यही हाल अन्य परिवारों की महिलाओं का भी है। सबका यही कहना था कि छत मिल भी गई तो रोजी-रोटी की व्यवस्था कैसे होगी।